'ज्यों की त्यों घर दीन्हीं नादीया'
कबीर की इस उक्ति को चरितार्थ करते थे- भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन। जिस परम पवित्र रूप में वह इस पृथ्वी पर आए थे बिना किसी दाग-धब्बे के, उसी पावन रूप में उन्होंने इस वसुन्धरा से विदाई ली। लम्बे समय तक भारत के उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति रहकर जब वह दिल्ली से विदा हुए, तो प्रत्येक दिल ने उनका अभिनन्दन किया। भारत के राष्ट्रपति पद की सीमा उन्हीं जैसे सादगी की ऊँची जिन्दगी जीने वाले महामानव से सार्थक हुई। अपनी ऋजुल, सौम्यता और संस्कारिता के कारण वह अजातशत्रु हो गए थे।
वह उन राजनेताओं में से एक थे, जिन्हें अपनी संस्कृति एवं कला से अपार लगाव होता है। वह भारतीय सामाजिक संस्कृति से ओतप्रोत आस्थावान हिन्दू थे। इसके साथ ही अन्य समस्त धर्मावलम्बियों के प्रति भी गहरा आदर भाव रखते थे। जो लोग उनसे वैचारिक मतभेद रखते थे। उनकी बात भी वह बड़े सम्मान एवं धैर्य के साथ सुनते थे। कभी-कभी उनकी इस विनम्रता को लोग उनकी कमजोरी समझने की भूल करते थे, परन्तु यह उदारता, उनकी दृढ निष्ठा से पैदा हुई थी।
उनका जन्म 5 सितम्बर, 1888 को तमिलनाडु राज्य के तिरूतनी नामक गाँव में हुआ था। जो मद्रास शहर से लगभग 50 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है। उनका परिवार अत्यन्त धार्मिक था और उनके माता-पिता सगुन उपासक थे। उन्होंने प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा मिशन स्कूल तिरूपति तथा बेलौर कॉलेज, बेलौर में प्राप्त की। सन् 1905 में उन्होंने मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में प्रवेश किया। बी ए. और एम. ए. की उपाधि उन्होंने इसी कॉलेज से प्राप्त की। सन् 1909 में मद्रास के ही एक कॉलेज में दर्शनशास्त्र के अध्यापक नियुक्त हुए।
इसके बाद वह प्रगति के पथ पर लगातार आगे बढ़ते गए तथा मैसूर एवं कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। इसके बाद डॉ. राधाकृष्णन ने आन्ध्र विश्व विद्यालय के कुलपति के पद पर कार्य किया। लम्बी अवधि तक वह आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर रहे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में उन्होंने कुलपति के पद को भी सुशोभित किया। सोवियत संघ में डॉ. राधाकृष्णन भारत के राजदूत भी रहे।
अनेक राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों तथा शिष्टमण्डलों का उन्होंने नेतृत्व किया। यूनेस्को के एक्जीक्यूटिव बोर्ड के अध्यक्ष के पद को उन्होंने 1948-49 में गौरवान्वित किया। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पद हैं। 1952-62 की अवधि में वह भारत के उपराष्ट्रपति तथा 1962 से 1967 तक राष्ट्रपति रहे। 1962 में भारत-चीन युद्ध तथा 1965 में भारत-पाक युद्ध उन्हीं राष्ट्रपति काल में लड़ा गया था। अपने ओजस्वी भाषणों से भारतीय सैनिकों के मनोबल को ऊँचा उठाने में उनका योगदान सराहनीय था।
डॉ. राधाकृष्णन भाषण कला के आचार्य थे। विश्व के विभिन्न देशों में भारतीय तथा पाश्चात्य दर्शन पर भाषण देने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया। श्रोता तो उनके भाषणों से मंत्रमुग्ध ही रह जाते थे। डॉ. राधाकृष्णन में विचारों, कल्पना तथा भाषा द्वारा विचित्र ताना-बाना बुनने की अदभुत क्षमता थी। वस्तुतः उनके प्रवचनों की वास्तविक महत्ता उनके अन्तर में निवास करती थी, जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है। उनकी यही आध्यात्मिक शक्ति सबको प्रभावित करती थी, अपनी ओर आकर्षित करती थी और संकुचित क्षेत्र से उठाकर उन्मुक्त वातावरण में ले जाती थी।
हाजिर जवाबी में तो डॉ. राधाकृष्णन गजब के थे। एक बार वह इंग्लैण्ड गए। विश्व में उन्हें हिन्दुत्व के परम् विद्वान के रूप में जाना जाता था। तब देश परतंत्र था। बड़ी संख्या में लोग उनका भाषण सुनने के लिए आए थे। भोजन के दौरान एक अंग्रेज ने डॉ. राधाकृष्णन से पूछा, 'क्या हिन्दू नाम का कोई समाज है ? कोई संस्कृति है ? तुम कितने बिखरे हुए हो ? तुम्हारा एक सा रंग नहीं, कोई गोरा, कोई काला, कोई बौना, कोई धोती पहनता है, कोई लुंगी कोई कुर्ता तो कोई कमीज, देखो, हम अंग्रेज एक जैसे हैं सब गोरे-गोरे, लाल-लाल। इस पर डॉ. राधाकृष्णन ने तपाक से उत्तर दिया, 'घोड़े अलग-अलग रंग रूप के होते हैं, पर गधे एक जैसे होते हैं। अलग-अलग रंग और विविधता विकास के लक्षण है।
गीता में प्रतिपादित कर्मयोग के सिद्धान्तों के अनुसार वे एक निर्विवाद निष्काम कर्मयोगी थे। भारतीय संस्कृति के उपासक तथा राजनीतिज्ञ। इन दोनों ही रूपों में उन्होंने यह प्रयत्न किया कि वह सम्पूर्ण मानव समाज का प्रतिनिधित्व कर सकें और विश्व के नागरिक कहे जा सके। वह एक महान शिक्षाविद थे और शिक्षक होने का उन्हें गर्व था। उन्होंने अपने राष्ट्रपतित्व काल में अपने जन्म दिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की इच्छा प्रकट की थी। तभी 5 सितम्बर को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
डॉ. राधाकृष्णन गौतम बुद्ध की तरह हृदय में अपार करूणा लेकर आए थे। उनका दीप्तिमय तथा उज्ज्वल आलोक, भारत के आकाश में तो फैला ही, विश्व की धरती भी उनकी रश्मियों के स्पर्श से धन्य हो गई। पूर्ण आयु एवं यशस्वी जीवन का लाभ प्राप्त करने के बाद, 17 अप्रैल, 1975 को ब्रह्मलीन हो गए।
कठिन से कठिन परिस्थितियों में, निष्काम एवं समर्पण भाव से कर्म करने के मार्ग को डॉ. राधाकृष्णन, पुरुषार्थ का प्रशस्त मार्ग बताते थे। सदैव परमात्मा को स्मरण रखने का अर्थ ही विश्व सत्ता के साथ स्वयं को जोड़े रखना है। समष्टि की चेतना से अपने को जोड़े रखना, जिससे व्यष्टि का अभिमान कंधे पर सवार न होने पाए और अपने कर्तव्य को प्रभु की विधि मानना भी सक्रिय विसर्जन का मार्ग प्रशस्त करने के लिए है।
डॉ. राधाकृष्णन हिन्दुस्तान के साधारण आदमी के विश्वास, समझदारी, उदारता, कर्तव्यपरायणता, सनातन मंगल भावना, ईमानदारी और सहजता इन सबके आकार प्रतिबिम्ब थे। उन्हें बड़े देश का प्रथम नागरिक होने का बोध और अधिक विनम्र बनाता था। उन्हें ऊँचे से ऊँचे पद ने और अधिक सामान्य बनाया तथा राजनीति के हर दाव-पेंच ने और अधिक निश्चल बनाया।